मंगलवार, 7 जुलाई 2009

आचार्य श्री तुलसी

जैन समुदाय के तेरापंथ संप्रदाय में नौवें पट्टधर एवं अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी विलक्षण प्रतिभा के धनी और प्रखर शक्ति के पुँज थे। आचार्य श्री तुलसी के मन में बचपन से ही धर्म के प्रति आस्था रही और ग्यारह वर्ष की अल्पायु में उन्होंने मुनि दीक्षा ले ली। बाईस वर्ष की अवस्था में तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी ने उन्हें आचार्य पद सौंपा। 

जबसे वे अपने धर्म-संघ के आचार्य पद पर आसीन हुए, उन्होंने अनेक क्रांतिकारी कदम उठाए। उन्होंने आजीवन आत्मसाधना तो की ही, साथ ही अपनी संवेदना के पटल को व्यापक किया। समाज की आधार अमुक इकाई मनुष्य है। जब तक मनुष्य अच्छा नहीं बनेगा, समाज अच्छा हो नहीं सकता। उनकी इस मान्यता में से अणुव्रत की गंगोत्री का उदय हुआ।

अणुव्रत में जात-पाँत, छोटे-बड़े, धनी-निर्धन इत्यादि का कोई भेदभाव नहीं है। अणु का अर्थ है छोटा अर्थात छोटे-छोटे व्रतों से संकल्प शक्ति के विकास द्वारा क्रमशः जीवन को निर्मल करना। संयम, इच्छा परिमाण, अनावश्यक हिंसा से विरति आदि व्रतों का पालन करना, शराब तथा मादक द्रव्यों का त्याग करना, दहेज और अन्य सामाजिक बुराइयों को छोड़ना, राजनीति को नीतियुक्त बनाना, व्यवसाय में बेईमानी न करना, मिलावट, भ्रष्टाचार, चोरी-डकैती आदि से बचाव, पर्यावरण की सुरक्षा यह सब अणुव्रत के अभीष्ट हैं। 

संक्षेप में कहें तो 'अणुव्रत' मानवीय मूल्यों की वह न्यूनतम आचार संहिता है जिसे पालन करके कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या सम्प्रदाय का हो अणुव्रती बन सकता है, लाखों-लाखों व्यक्ति अणुव्रती बने भी हैं।

आचार्य श्री तुलसी समग्र मानव मात्र के कल्याण के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे। अणुव्रत को सहज ग्रहणीय, प्रभावी व व्यावहारिक बनाने के लिए उन्होंने उसमें प्रेक्षाध्यान और जीवन-विज्ञान का भी समावेश किया। उनके इंगित पर उनके शिष्य एवं उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा अनुसंधानिक प्रेक्षाध्यान अंतःकरण के परिशोधन की एक अत्यंत प्रभावशाली प्रक्रिया है। जीवन-विज्ञान शिक्षा द्वारा जीवन निर्माण की प्रेरणा देता है। जिसमें बाल्यावस्था से ही मूल्यपरक शिक्षा द्वारा संस्कारों को अंतर की गहराइयों में पहुँचाने की क्षमता है। 

लगभग साढ़े आठ सौ साधु-साध्वियों, समण-समणियों के विशाल संगठन के संचालक रहे, देश-विदेश में उनकी प्रतिष्ठा थी, लेकिन गोस्वामी तुलसीदास की इस उक्ति के वे चरितार्थ हैं कि 'प्रभुता पाय काहि मद नाही'। मद या अभिमान उन्हें छू तक नहीं गया। उनमें अभिमान नहीं था, पर स्वाभिमान उच्च दर्जे का था। आज आचार्यश्री हमारे बीच नहीं है किंतु उनके सक्षम प्रतिनिधि अहिंसा यात्रा प्रणेता युगप्रधान आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के सक्षम नेतृत्व में उनका अणुव्रत आंदोलन सतत गतिमान है। जिसने मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन के आगे समाधान का उर्ध्वगामी मार्ग प्रशस्त किया है।

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