शनिवार, 4 जुलाई 2009

विवेक रहित अंधानुकरण

विवेक रहित अंधानुकरण सदैव हानिकारक ही सिद्ध होता है। जनमानस अज्ञानवश सुधरना तो दूर, बहिरंगी स्वरुप को देखकर जो चला आ रहा है, उसे ही श्रेयस्कर मानता व तदनुसार चलता रहता है। यहाँ तक तीर्थ-स्नान आदि पुण्य प्रयोजनों का बाहृ आडम्बर वाला स्वरुप भी शाश्वत चला आ रहा है।

मणियार ईश्वरभक्त था, किंतु उनका वैयक्तिक जीवन कुविचार और बुरे आचरणों में ग्रस्त होने के कारण अशांत था। उनकी धर्मपत्नी अबुर्द ने कहा-``स्वामी दु:ख और अशांति का कारण अस्वच्छ मन है। आप ज्ञान के प्रकाश से पहले अंतरतम को धो लें, तभी शांति मिलेगी।´´ मणियार ने कहा-``नहीं ! हम लोग तीर्थ-स्नान करने चलेंगे । तीर्थ-स्नान से मन पवित्र हो जाता है।´´

अबुर्द स्त्री थी, झुकना पड़ा । तीर्थयात्रा पर चलने से पूर्व उसने एक पोटली में कुछ आलू बाँध लिए । जहाँ-जहाँ मणियार ने स्नान किया, उसने इन आलूओं को भी स्नान कराया । घर लौटते-लौटेत आलू सड़ गए । अबुर्द ने उस दिन भोजन की थाली में वह आलू भी रख दिए, उनकी दुर्गंध पाकर मणियार चिल्लाया - `` यह दुर्गंध कहा से आ रही है ? ´´ अबुर्द ने हँसकर कहा - `` ये आलू तो तीर्थ-स्नान करने आए हैं, फिर भी दुर्गंध है क्या ?´
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