शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

प्रेम प्यार

1) मिलता हैं उसको प्रभु प्यार, जो करता हैं आत्म सुधार।
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2) हम प्यार करना सीखें,हममें,अपने आप में,अपनी आत्मा और जीवन में,परिवार में, समाज में और ईश्वर में,दसों-दिशाओं में प्रेम बिखेरना और उसकी लौटती प्रतिध्वनि का भाव-भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना,यही जीवन की सफलता हैं।
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3) प्यार, प्यार और प्यार यही हमारा मन्त्र हैं। आत्मीयता, ममता, स्नेह और श्रद्धा यही हमारी उपासना है।
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4) सबको प्यार बॉटो, आत्मीयता दो।
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5) सत्कर्मों में डूबे रहना ही सही अर्थों में जिंदगी से प्यार करते रहना है।
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6) अधिकारों का वह हकदार, जिसको कर्तव्यों से प्यार।
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7) लोग प्यार करना सीखे। हममें, अपने आप में, अपनी आत्मा और जीवन में , परिवार में, समाज में, कर्तव्य में और ईश्वर में दसों दिशाओं में प्रेम बिखेरना और उसकी लौटती हुयी प्रतिध्वनि का भाव भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना, यही जीवन की सफलता है।
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8) यदि पति-पत्नी के बीच प्रेम और विश्वास की प्रगाढता हैं तो परिवार में सर्वत्र प्रेम, स्नेह, श्रद्धा व सेवा की भावना बनी रहेगी।
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9) हृदय में प्रेम रहे, बुद्धि में विवेक रहे और शरीर उपकार में लगा रहे।
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10) इच्छा में सरलता और प्रेम में पवित्रता का विकास जितना अधिक होगा, उतनी ही अधिक श्रद्धा बलवान होगी। सरलता द्वारा परमात्मा की भावानुभूति होती हैं और पवित्र प्रेम के माध्यम से उसकी रसानुभूति । श्रद्धा दोनो का ही सम्मिलित स्वरुप हैं, उसमें भावना भी हैं और रस भी।
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11) मनुष्य की एक विशेशता हैं-मलिनता से घृणा और स्वच्छता से प्रेम।
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12) विपित्त तुम्हारे प्रेम की कसौटी है।
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13) विश्व प्रेम ही लोकतन्त्र हैं, अन्तर क्रान्ति महान् मन्त्र है।
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14) जिस प्रकार शरीर के क्रिया-कलाप में प्राणतत्व की महत्ता हैं, उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में प्रेम-तत्त्व का आधिपत्य है।
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15) जिसमें प्रेम-भावना नहीं, वह न तो आस्तिक हैं और न ईश्वर भक्त, न भजन जानता हैं न पूजन। निष्ठुर, नीरस , निर्दय , सूखे , तीखे, स्वार्थी, संकीर्ण, कडुए, कर्कश, निन्दक प्रवृत्ति के मनुष्यों को आत्मिक दृष्टि से नास्तिक एवं अनात्मवादी ही कहा जायेगा, भले ही वे घण्टो पूजा-पाठ करते हो अथवा व्रत-उपासना, स्नान-ध्यान, तीर्थ-पूजन, कथा-कीर्तन करने में घण्टो लगाते रहे हो।
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16) जिसने प्रेम का विरह न जाना हो, जो प्रेम में रोया न हो, उसे तो प्रार्थना की तरफ इंगित भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मैं प्रेम का पक्षपाती हूं, प्रेम का उपदेष्टा हू। कहता हूं खूब प्रेम करो। क्योकि प्रेम का निचोड एक दिन प्रार्थना बनेगा। प्रेम के हजार फूलो को निचोडोगे, तब कहीं प्रार्थना की एक बूंद, एक इत्र की बूंद बनेगा। ओशो।
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17) भगवान की भाषा प्रेम की हैं।
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18) पवित्र बनने के लिए प्रेम की ऑंख चाहिए। पुण्यवान बनने के लिए श्रद्धा की ऑंख चाहिए। प्रसन्न रहने के लिए आशा की ऑंख चाहिए। प्रभु दर्शन पाने के लिए प्रतीक्षा की ऑंख चाहिए।
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19) परमात्मा पूजा से नही, प्रेम से मिलता है।
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20) प्रेम की ही पराकाष्ठा प्रार्थना बन जाती है।
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21) प्रेम को जगाओ। और मै जानता हूँ कि तुम परमात्मा के प्रेम में एकदम नहीं पड सकते। तुमने अभी पृथ्वी का प्रेम भी नहीं जाना, तुम स्वर्ग का प्रेम कैसे जान पाओगे ? इसलिये मैं निरन्तर कह रहा हूँ कि मेरा संदेश प्रेम का हैं। पृथ्वी के प्रेम को तो जानो, तो फिर वही प्रेम तुम्हे परमात्मा के प्रेम की तरफ ले चलेगा। ओशो।।
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22) प्रेम के बिना ज्ञान बिना मल्लाह की नौका है।
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23) प्रेम में मनुष्य सब कुछ देकर भी यह सोचता हैं कि अभी कम दिया है।
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24) प्रेम में स्थिरता और दीर्घता लाने के लिए मनुष्य के पास विशाल मस्तिष्क भी होना चाहिये।
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