सोमवार, 15 जून 2009

श्रद्धा

समुद्र से जल भरकर लौट रहे मरुत्गणों को विंध्याचल शिखर ने बीच में ही रोक दिया । मरुत् विंध्याचल के इस कृत्य पर बड़े कुपित हुए और युद्ध करने को तैयार हो गए।
विंध्याचल ने बडे़ सौम्य भाव से कहा-`` महाभाग ! हम आपसे युद्ध करना नहीं चाहते, हमारी तो एक ही अभीलाषा है कि आप यह जो जल लिए जा रहे हैं, वह आपको जिस उदारता के साथ दिया गया हैं, उसी उदारता के साथ आप भी इसे प्यासी धरती को पिलाते चलें तो कितना अच्छा हो ? ´´ मरुत्गणों को अपने अपमान की पड़ी थी, सो वे शिखर से भिड़ गए, पर जितना युद्ध उन्होनें किया , उतना ही उनका बल क्षीण होता गया और धरती को अपने आप जल मिल गया । मनुष्य न चाहे तो भी ईश्वर अपना काम करा ही लेता है , पर श्रद्धापूर्वक करने का तो आनंद ही कुछ और है।

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