बुधवार, 10 जून 2009

महापुरूष रामतीर्थ

22 अक्टूम्बर, 1873 को गुजरांवाला में एक बालक जन्मा । नाम रखा गया - तीर्थराम। पढने-लिखने में कुशल तीर्थराम ने पंजाब भर में प्रथम स्थान प्राप्त एंट्रेंस परीक्षा उत्तीर्ण की। लाहौर जैसे शहर में छात्रवृति एवं ट्यूशन द्वारा खरच निकालकर वे पढते रहे । बीए. में फिर वे प्रथम आए । एम.ए. का फार्म भर रहे थे तो अँगरेज प्रिंसिपल ने बडे़ स्नेह से पूछा-``क्या मैं तुम्हारा नाम इंडियन सिविल सर्विसेज (आई.सी.एस.) के लिए भेज दूँ । तुम योग्य हो।´´ तीर्थराम बोले -``मेने यह ज्ञान का खजाना धन या उच्च पद पाने के लिए नहीं पाया । मै इस दौलत को बाँटना चाहता हूँ । मै सारा जीवन प्रभु की इस मानव जाति की सेवा करुँगा। तीर्थराम पर स्वामी विवेकानंद, जो उनसे दस वर्ष बडे थे, का बड़ा प्रभाव था । एक दिन वे उत्तराखंड के जंगलो की और निकल गए। नारायण स्वामी से उनका साक्षात्कार हुआ, यहीं वे रामतीर्थ बने। टेहरी नरेश के आग्रह पर, वे टोकियो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेललन में गए। जापान, अमेरिका, यूरोप, तथा मिस्र में उनने व्यावहारिक वेदांत की शिक्षा दी । सन् 1906 की दीपावली पर उनकी लिखी `मौत का आह्वान´ नामक रचना अपने शिष्य को सौपने के बाद तैतीस वर्ष आयु में ही भागीरथी में जल समाधि ले ली ।

धन्य है वह देश , जहाँ ऐसे महापुरूष जन्मे।

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