मंगलवार, 26 मई 2009

संत का सान्निध्य

संत का सान्निध्य अनुठा है। इसके रहस्य गहरे है। संत के सान्निध्य में जो दृश्य घटित होता है, वह थोड़ा है, लेकिन जो अदृश्य में घटता है, वह ज्यादा है। उसका महत्त्व और मोल अनमोल है । संत का सान्निध्य नियमित होता रहे, इसमें निरंतरता बनी रहे तो अपने आप ही जीवनक्रम बदलने लगता है । मन में जड़ जमाए बैठीं उलटी आस्थाएँ, मान्यताएँ, आग्रह फिर से उलटकर सीधे होने लगते है । संत के सान्निध्य में विचार परिवर्तन के क्रांति स्फुलिंग यों ही उड़ने रहते है । इसेक बाद दाहक स्पर्श से जीवन की अवांछनीयताओं का दहन हुए बिना नहीं रहता ।

संत के सान्निध्य में सत् का सत्य बोध अनायास हो जाता है, पर यह हो पाता है-संत के चित् के कारण, उसके चैतन्य-प्रवाह की वजह से। इस संबंध में बड़ा पावन प्रसंग है- संत फरीद के जीवन का । बिलाल नाम के एक व्यक्ति को कुछ षड्यंत्रकारी लोगों ने उसके पास भेजा । उसने संत फरीद को कई तरह से परेशान करने की कोशिश की, पर वह संत रहे । संत की इस अचरजभरी शांति ने, बिलाल के मन को छू लिया और वह उन्ही के साथ रहने लगा। उसे संत के साथ रहते हुए कई वर्ष बीत गए। इन वर्षों मे उसमें कई आध्यात्मिक परिवर्तन हुए । हालाँकि उसने इसके लिए कोई साधना नही की थी । संत फरीद के एक शिष्य ने थोड़ा हैरान होते हुए इसका रहस्य जानना चाहा । संत फरीद ने हँसते हुए कहा- संत का सान्निध्य स्वयं मे साधना है । संत के सान्निध्यमें अदृश्य आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रवाह उमड़ता रहता है और अपने आप ही संत के सान्निध्य में, आध्यात्मिक व्यक्तित्व जन्म पा जाता है।

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