रविवार, 31 मई 2009

सत्यनिष्ठा

जिज्ञासु की पहली पात्रता है- सत्यनिष्ठा । सत्यकाम अज्ञात कुल के थे, पर सुशील थे। वे महर्षि गौतम के पास ब्रह्मज्ञान ज्ञान हेतु पहुँचे । सत्यकाम ने कुल-गौत्र का नाम पूछे जाने पर यही कहा कि मेरी माँ यौवनवस्था में निराश्रित थी । कई गृहस्थों के यहाँ काम किया । मेरी उत्पति किससे हुई , मुझे नहीं मालुम । मेरा नाम सत्यकाम है, माँ का जाबाला । महर्षि ने सत्यकाम को जाबाल नाम देकर , ब्रह्माविद्या में ऐसे साधक को दीक्षित कर, नया इतिहास रचा ।

शनिवार, 30 मई 2009

दुःख

1) सुख चाहने वाले को वर्तमान में पाप करना पडेगा और भविष्य में भयंकर दु:ख भोगना पडेगा।
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2) सुखदायी परिस्थिति में पुण्य कटते हैं और दु:खदायी परिस्थिति में पाप कटते है।
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3) सुखदायी परिस्थिति सेवा करने के लिये हैं और दु:खदायी परिस्थिति सुख की इच्छा का त्याग करने के लिये है।
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4) सन्त-महात्मा, बडे-बुढे और दीन-दु:खी-ये भगवान् के रहने के स्थान हैं, इनकी सेवा करो।
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5) दरिद्रता, रोग, दु:ख, बन्धन और विपित्तयॉं ये सब मनुष्यों के अपने ही दुष्कर्मरुपी वृक्ष के फल है।
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6) दु:ख में विवेक जागता हैं, सुख में ज्ञान सोता है।।
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7) दु:ख उतना ही अधिक या न्यून रहता है। जितना मनुष्य का मन कोमल तथा सुकुमार होता है।
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8) दु:ख जरुरी हैं, अपने मूल स्वरुप को प्रकट करने के लिये।
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9) दु:ख आया मत रोय रे, मिटसी दो दिन मांय। सुख आया मत फूल रे, औ थिर रैसी नाय।।
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10) दु:ख, घृणा, हादसा कुछ समय के लिये होते हैं पर अच्छाई, प्यार और यादे हमेशा बनी रहती है।
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11) दुखों से भरी इस दुनिया में सच्चे प्रेम की एक बूंद मरुस्थल में सागर की तरह है।
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12) दूसरे के दु:ख से दु:खी होना सबसे ऊंची सेवा हैं और गोपनीय सेवा है, सेवा का मूल है।
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13) जो बाहरी वस्तुओं के अधीन हैं, वह सब दु:ख हैं और जो अधिकार में हैं, वह सुख है।
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14) जो किसी को दु:ख नहीं देता, उसको देखने से पुण्य होता है।
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15) जो भोगी होता हैं, उसी की दृष्टि में परिस्थिति सुखदायी और दु:खदायी-दो तरह की होती है। योगी की दृष्टि में परिस्थिति दो तरह की होती ही नही।
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16) जो दूसरों के दु:ख से दु:खी होता हैं, उसको अपने दु:ख से दु:खी नहीं होना पडता।
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17) जो व्यक्ति समाज में आत्म प्रदर्शन के लिये जितना उत्सुक हैं, वह उतना ही दु:खी है।
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18) अविवेकशील मनुष्य दु:ख को प्राप्त होते है।
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19) अपना दु:ख भूलकर दूसरो के आनन्द में जुट जाने के सिवाय और दूसरा रास्ता आनंदित होने का इस दुनिया में नहीं है।
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20) अपने निकट सम्बन्धी का दोष सहसा नहीं कहना चाहिये, कहने से उसको दु:ख हो सकता हैं, जिससे उसका सुधार सम्भव नही।
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21) अपने सुख-दु:ख का कारण दूसरों को न मानना चाहिये।
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22) अज्ञानी रहने से जन्म न लेना अच्छा हैं, क्योंकि अज्ञान सब दु:खों की जड है।
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23) अज्ञानी दु:ख को झेलता हैं और ज्ञानी दु:ख को सहन करता हैं।
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24) गहरे दु:ख से वाणी मूक हो जाती है।

गुरुवार, 28 मई 2009

यदि दु:ख के बाद सुख न आता तो उसे कौन सहता...

1) ऐ जिन्दगी ! दु:खी लोगो के लिये तू एक युग हैं, सुखी लोगो के लिये एक क्षण।
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2) यदि दु:ख के बाद सुख न आता तो उसे कौन सहता।
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3) यह नियम हैं कि दु:खी आदमी ही दूसरे को दु:ख देता है।
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4) इस विश्व में किसी दु:खी मानव के लिये थोडी सी सहायता ढेरों उपदेश से कहीं अच्छी है।
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5) इच्छा से दु:ख आता हैं, इच्छा से भय आता हैं, जो इच्छाओं से मुक्त हैं वह न दु:ख जानता हैं न भय।
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6) बीज मन्त्र :- सम्मान दे, सलाह लें। सुख बॉटे, दु:ख बंटाये
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7) बुरे स्वभाव वाला मनुष्य जिस योनि में जायेगा, वहीं दु:ख पायेगा। मरने पर स्वभाव साथ में जाता है।
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8) कहा जाता हैं कि जीवन में दु:खो से संघर्ष करने के लिये साहस चाहिये। वास्तविकता यह हैं कि साहसी व्यक्ति तक दु:ख पहुंचता ही नहीं।
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9) कोई वस्तु दुखमय हैं न सुखमय। सुख-दु:ख तो मन के विकार है।
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10) मेरी तो बस एक ही प्रार्थना हैं, सभी प्राणियों का हृदय स्थिर रहें और मैं सब दु:खों को सहन करुं।
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11) मनुष्य जिस-जिस कामना को छोड देता हैं, उस-उस ओर से सुखी हो जाता हैं। कामना के वशीभूत होकर तो वह सर्वदा दु:ख ही पाता है।
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12) जिसे कभी दु:ख अनुभव नहीं हुआ , वह सुख अनुभव नहीं कर सकता।
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13) निष्फलता, निराशा, निर्धनता, निरुत्साह सब दु:खानुभूति की ही संताने है।
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14) निद्रा भी कैसी प्यारी वस्तु है घोर दु:ख के समय भी मनुष्य को यही सुख देती है।
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15) हमारी मानसिक अशान्ति, उद्विग्नता, क्षोभ, नैराश्य, क्लेश और दु:खादि के मूल में हैं हमारे द्वारा लोकहित का बाधित होना।
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16) भगवान् की कृपा को देखो, सुख-दु:ख को मत देखो। माता कुन्ती ने विपित्त का वरदान मॉगा था।
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17) परपीडा से छलक उठे मन, 
यह छलकन ही गंगाजल है। 
दु:ख हरने को पुलक उठे मन, 
यह पुलकन ही तुलसीदल हैं।।
जो अभाव में भाव भर सके, 
वाणी से रसदार झर सके। 
जनहिताय अर्पित जो जीवन, यह अर्पण ही आराधन है।
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18) पाप का निश्चित परिणाम दु:ख है।
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19) श्रम का अर्थ हैं-आनन्द और अर्कमण्यता का अर्थ हैं-दु:ख।
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20) शान्त तथा पवित्र आत्मा में क्लेश, भय, दु:ख, शंका का स्पर्श कैसे हो सकता है।
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21) संसार से सुख चाहने वाला दु:ख से कभी बच सकता ही नही।
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22) सच्चे मित्र के सामने दु:ख आधा और खुशी दोगुनी हो जाती है।
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23) सुख ऊपर पत्थर पडो, जो राम हृदय से जाय। बलिहारी वा दु:ख की जो हर पल राम रटाय। कबीरदासजी।
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24) सुख को भोगना दु:ख को निमन्त्रण देना है।

स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार

धर्म और अध्यात्म के बल पर जीवन का विकास कितना सहज हो सकता है- स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार ने स्वयं को इसके एक उदाहरण के रुप में प्रस्तुत किया । स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद ने गीता के आधार पर जीवन जीकर, उच्च जीवनमूल्यों का प्रतिपादन किया किया था। गीता एक अर्थ में राष्ट्रीय पुनर्जागरण की प्रेरणा ग्रन्थ बन गई थी । भाई जी (इसी नाम से पोद्दार जी विख्यात हुए ) ने, इसी महत्ता को देख `साहित्य सम्वार्धिनी समिति´ की स्थापना की और नई सजधज के साथ भारतमाता के चित्र सहित , गीता का प्रकाशन किया । बाद में धर्मप्रेमी , सद्गृहस्थ विद्वान श्री जयदयाल गोयंदका जी के संपर्क में आने से, उनकी गीता निष्ठा बढती गई । दोनो महानुभावो ने गीताप्रेस की स्थापना की । इस बीच उन पर ब्रिटिश सरकार के मुकदमे भी चले । उनके घर की देख-भाल जयदयाल आदि करते । जेल से छूटने पर उनने `कल्याण´ पत्रिका का प्रवर्तन किया । गोरखपुर आकर बसे भाईजी का सारा जीवन धर्मप्रचार , समाजसुधार में लग गया । एक सद्गृहस्थ संत के रुप में उनका जीवन बीता । गीताप्रेस गोरखपुर ने विचार-क्रांति की वह जन-जन में गहरी पैठ कर गई । धन्य हैं भाईजी ! जिनका सारा जीवन अध्यात्म मार्ग के पथिक की तरह बीता ।

Orison Swett Marden

1- No man fails who does his best.
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2- A good system shortens the road to the goal.
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3- A will finds a way.
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4- All men who have achieved great things have been great dreamers.
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5- Be larger than your task.
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6- It is what we do easily and what we like to do that we do well.
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7- No one has a corner on success. It is his who pays the price.
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8- Our thoughts and imagination are the only real limits to our possibilities.
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9- Power gravitates to the man who knows how.
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10- The Creator has not given you a longing to do that which you have no ability to do.
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11- The influential man is the successful man, whether he be rich or poor.
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12- The waste of life occasioned by trying to do too many things at once is appalling.
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13- There is no medicine like hope, no incentive so great, and no tonic so powerful as expectation of something tomorrow.
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14- There is no stimulus like that which comes from the consciousness of knowing that others believe in us.
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15- We advance on our journey only when we face our goal, when we are confident and believe we are going to win out.
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16- We fail to see that we can control our destiny; make ourselves do whatever is possible; make ourselves become whatever we long to be.
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17- We make the world we live in and shape our own environment.
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18- We must give more in order to get more. It is the generous giving of ourselves that produces the generous harvest.
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19- What power can poverty have over a home where loving hearts are beating with a consciousness of untold riches of the head and heart?
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20- Wisdom is knowledge which has become a part of one's being.
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21- You cannot measure a man by his failures. You must know what use he makes of them. What did they mean to him. What did he get out of them.
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22- You have not found your place until all your faculties are roused, and your whole nature consents and approves of the work you are doing.
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23- You will never succeed while smarting under the drudgery of your occupation, if you are constantly haunted with the idea that you could succeed better in something else.
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24- Your expectations opens or closes the doors of your supply, If you expect grand things, and work honestly for them, they will come to you, your supply will correspond with your expectation.
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                                         आप भी हमारे सहयोगी बने।

साहित्य सम्राट प्रेमचंद जी

प्रेमचंद जी को साहित्य सम्राट बनाने का श्रेय उनकी माँ को ही जाता है । लोक-जीवन से जुड़े, उनकी माँ के किस्से कहानियाँ कितने लंबे हाते थे कि सुनते-सुनाते खत्म ही नहीं होते । बहुत प्रखर बुद्धि और कई भाषाओं की जानकार थीं वे। पढ तो सब लेती थीं, पर एक भी अक्षर लिख नही पाती थी । प्रेमचद जी की कहानियाँ-उपन्यासों में जो सहज पात्र, स्वाभाविक घटनाक्रम, आदर्शोन्मुखी और भारतीय जनजीवन का सजीव चित्रांकन हुआ है, बहुत कुछ उनकी माता की ही देन था। वे अपनी कहानियों से श्रोताओं को इस तरह बाँधे रखती थी कि वे तन्मय होकर रह जाते । प्रेमचंद जी ने अपनी माँ से कथा-कहानियाँ, लोक-जीवन के चरित्रों के बारे मे सुनकर अपने आप को गढा, तभी वे एक विशिष्ट व्यक्ति बन सके । माँ ने बेटे को बनाया, ऐसे उदाहरणो से हमारा इतिहास भरा पडा है।

महात्मा हुसैन

हुसैन का कहना है कि उसे तीन बार विशेष रुप से लज्जित होना पड़ा। इनमें पहली घटना एक शराबी की है । वह एक दिन शराब के नशे में पैर इधर-उधर पटकता जा रहा था और कभी-कभी कीचड़ में गिर भी जाता था। हुसैन भी वहीं होकर जा रहा था। 

उसने कहा- ``अरे भाई ! पैर ठिकाने रखकर चलो , नही तो कीचड़ में गिर जाओगे।´´ यह सुनकर शराबी ने कहा-``अरे भले आदमी ! तू ही अपने पैरों को सँभालकर रख, क्योकि तू एक धार्मिक पुरुष है। मै तो शराबी हूँ, अगर गिर जाऊँगा तो तो फिर उठ बैठूँगा और पानी से शरीर को धो डालूँगा, पर यदि तू गिर जाएगा तो फिर सहज में स्वच्छ न बन सकेगा।´´

दूसरी घटना मे एक बालक दीपक लेकर आ रहा था। हुसैन ने पुछा- `` यह दीपक कहाँ से लाया ? ´´उसी समय संयोगवश हवा के झोंके से दीपक बुझ गया । उस बालक ने कहा-``पहले तो यह बतलाओ कि दीपक गया कहाँ ? फिर मै तुमको बतलाऊँगा कि दीपक कहाँ से आया था। ´´

तीसरी घटना एक रुप-यौवन संपन्न युवती की है । उसने हुसैन बाबा के पास आकर क्रोधपूर्वक अपने पति के निर्मोहीपन की शिकायत की ।

हुसैन ने कहा-´´बेटी! पहले तू अपने माथे के वस्त्र को ठीक कर जो हट गया है, फिर जो कुछ कहना हो सो कहना ।´´ यह सुनकर उस युवती ने कहा-`` अरे भाई ! मैं तो ईश्वर के बनाए एक पदार्थ के प्रेम में मुग्ध होकर बेखबर हो गई थी, मुझे अपने शरीर का भी होश न था। अगर तुमने सावधान न किया होता तो मैं ऐसी ही हालत में बाजार में चली जाती, पर प्रभु के ध्यान में मस्त होने पर भी `माथा उघाडा है या ढका´ है ऐसी साधारण बात का तुम्हे ध्यान बना रहता है, यह देखकर मुझे तो आश्चर्य होता है । ´´

महात्मा हुसैन का कहना है कि इन शब्दों को सुनकर मैं वास्तव में सावधान हो गया ।


बंदा वैरागी

सत्रहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, काश्मीर के डोगरा राजपूत परिवार में जन्मे लक्ष्मण देव (बाद में बंदा वैरागी) शुरु से ही देश, धर्म और स्वाभिमान की रक्षा के लिए, अत्याचारी मुगल शासको का अंत करने की बात कहते थे। एक दिन शिकार के दोरान गर्भवती हिरनी उनके हाथों गलती से मार दी गई , गर्भ से दो बच्चे छिटककर गिरे तो उन्होने तुरंन्त वैराग्य ले लिया । 16 वर्ष लक्ष्मण देव नासिक के पास पंचवटी में जाकर तप करने लगे । पन्द्रह वर्ष के दौरान उनकी ख्याति वैरागी के रुप में, उस क्षेत्र में हो गई । इससे घबराकर वैरागी दक्षिणी पंजाब चले गए । गुरु गोविंद सिंह ने उन्हें राष्ट्रधर्म के लिए आगे आने को प्रेरित किया । गुरु के बंदे वे बने , इसलिए बंदा वैरागी कहलाए । एक हुक्मनामा और 25 शिष्य (सिख) लेकर खालसा दल उनने बनाया। प्रखर निष्ठा एंव देशभक्ति की भावना से भरे सैनिकों की एक अच्छी फौज तैयार हो गई । सरहिंद के नवाब ने गुरु साहब के पुत्रों को जिंदा दीवार में चिनवा दिया था। उसी नवाब वजीर खाँ पर आक्रमण कर उनने सरहिंद जीत लिया । अपने राज्य में उनने गुरु गोविंद सिंह के नाम के सिक्के चलवाए । यवन शासको ने उनका बड़ा बर्बर अंत किया, पर उनके मुख से उफ तक न निकली । शरीर छोड़ दिया , पर धर्म नहीं बदला ।

बुधवार, 27 मई 2009

धर्म

1) धर्म की मर्यादा में अर्थ का उपार्जन एवं काम का सुनियोजन करते हुए मोक्ष की ओर बढने का यहॉ आदर्श निर्धारण रहा है।
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2) धर्म का मार्ग फूलों की सेज नहीं, इसमें बडे-बडें कष्ट सहन करने पडते है।
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3) धर्म का प्रथम आधार आस्तिकता हैं, ईश्वर विश्वास है।
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4) धर्म का उद्धेश्य मानव को पथ भ्रष्ट होने से बचाना है।
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5) धर्म में से दुराग्रह और पाखण्ड को निकाल दो । वह अकेला ही संसार को स्वर्ग बनाने में समर्थ है।
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6) धर्म से आशय श्रेष्ठ गुणों को अपनाना है।
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7) धर्म, सत्य और तप-यही जीवन की सार संपत्ति है।
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8) धैर्य, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, बाहर-भीतर की पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, सात्विक बुद्धि, अध्यात्म विद्या, सत्यभाषण और क्रोध न करना-ये दस सामान्य धर्म के लक्षण है।
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9) युधिष्टिर नाम लेने से धर्म बढता है।
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10) ऊर्ध्व उठे फिर ना गिरे, यही मनुज को कर्म । औरन ले ऊपर उठे, इससे बडों न धर्म।।
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11) कथनी करनी भिन्न जहॉ हैं, धर्म नहीं पाखण्ड वहॉं है।
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12) मानव धर्म ही हिन्दू धर्म की परिसीमा और पूर्णता मानी गयी है।
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13) मेरे लिये नैतिकता, सदाचार और धर्म पर्यायवाची शब्द हैं-राष्ट्रपिता।
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14) चिन्तन (मन), चरित्र (धर्म), एवं व्यवहार (कर्म) यही व्यक्तित्व का त्रिआयामी क्षेत्र है।
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15) प्राणीमात्र के प्रति दयाभाव रखना तथा सदैव ईमानदार बने रहना परम धर्म है।
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16) प्राणीमात्र में आत्मीयता व दया ही धर्म है।
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17) प्रात: धर्म सेवन, मध्यान्ह अर्थ सेवन और रात्रि काम सेवन करना चाहिये।
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18) राज तन्त्र ही नहीं प्रधान, धर्म तन्त्र पर भी दो ध्यान।
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19) शान्ति के समान दूसरा तप नही, सन्तोष से बडा कोई सुख नहीं, तृष्णा से अधिक बडा कोई रोग नहीं और दया से बडा कोई धर्म नही।
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20) सबसे अच्छी दुनिया वह होती हैं जिसमें ईश्वर तो होता हैं लेकिन कोई धर्म नही।
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21) सत्य मेरी माता हैं, ज्ञान पिता हैं, धर्म भाई है, दया मित्र हैं, शान्ति स्त्री हैं और क्षमा पुत्र हैं। ये छ: मेरे बान्धव है।

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22) सेवा धर्म के साथ शालीनता का समन्वय रहना चाहिये।
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23) उसी धर्म का हैं सम्मान, जिसका सहयोगी हैं विज्ञान।।
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24) दया सबसे बडा धर्म है।

बालगंगाधर तिलक

बालगंगाधर तिलक ने जब बी.ए.एल.एल.बी. की परीक्षा पास की तो उनके मित्र यही आशा कर रहे थे कि वे एक सफल वकील बन कर खूब पैसा कमाएँगे, पर उनने अपनी सभी सेवाएँ `न्यू इंग्लिश स्कूल´ एवं फर्ग्युसन कॉलेज की स्थापना हेतु दे दीं । इन्ही संथाओं से पढकर निकलने वालों ने महाराष्ट्र में जनजाग्रति की योजनाओ का प्रचार-प्रसार किया । लोकमान्य तिलक ने दो राष्ट्रीय त्योहारो का प्रचलन किया। एक था- गणपति उत्सव और दूसरा- शिवाजी जयंती । तिलक ने बंगाल की दुर्गा पूजा की तरह गणपति को एक सप्ताह तक पूजने तथा साथ ही साथ राष्ट्रीय महत्व के अनेकानेक कार्यक्रम सम्मिलित कर, उसे लोक-शिक्षण का माध्यम बना दिया । शिवाजी जयंती को उनने राष्ट्रीयता के विस्तार का प्रतीक बताया । इस उत्सवों से व्यापक जनजाग्रति फैली । ` केशरी ´ के उनके संपादकीय एवं राष्ट्रभक्ति-भावना के विस्तार से बौखलाकर ब्रिटिश सरकार ने, उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया और छह साल के देश निकाले का दंड दिया । वर्मा की मांडले जेल में उन्हें रखा गया । छह साल में उनने जेल में रहकर श्रीगीता का सुंदर भाष्य लिखकर रख लिया । `गीता रहस्य´ नामक इस ग्रंथ ने लाखो सत्याग्रही, देशभक्तो को प्ररेणा दी। ``स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर रहूँगा´´ की घोषणा करने वाले तिलक वस्तुत: आजादी की नींव के पत्थर बने।

मंगलवार, 26 मई 2009

संत का सान्निध्य

संत का सान्निध्य अनुठा है। इसके रहस्य गहरे है। संत के सान्निध्य में जो दृश्य घटित होता है, वह थोड़ा है, लेकिन जो अदृश्य में घटता है, वह ज्यादा है। उसका महत्त्व और मोल अनमोल है । संत का सान्निध्य नियमित होता रहे, इसमें निरंतरता बनी रहे तो अपने आप ही जीवनक्रम बदलने लगता है । मन में जड़ जमाए बैठीं उलटी आस्थाएँ, मान्यताएँ, आग्रह फिर से उलटकर सीधे होने लगते है । संत के सान्निध्य में विचार परिवर्तन के क्रांति स्फुलिंग यों ही उड़ने रहते है । इसेक बाद दाहक स्पर्श से जीवन की अवांछनीयताओं का दहन हुए बिना नहीं रहता ।

संत के सान्निध्य में सत् का सत्य बोध अनायास हो जाता है, पर यह हो पाता है-संत के चित् के कारण, उसके चैतन्य-प्रवाह की वजह से। इस संबंध में बड़ा पावन प्रसंग है- संत फरीद के जीवन का । बिलाल नाम के एक व्यक्ति को कुछ षड्यंत्रकारी लोगों ने उसके पास भेजा । उसने संत फरीद को कई तरह से परेशान करने की कोशिश की, पर वह संत रहे । संत की इस अचरजभरी शांति ने, बिलाल के मन को छू लिया और वह उन्ही के साथ रहने लगा। उसे संत के साथ रहते हुए कई वर्ष बीत गए। इन वर्षों मे उसमें कई आध्यात्मिक परिवर्तन हुए । हालाँकि उसने इसके लिए कोई साधना नही की थी । संत फरीद के एक शिष्य ने थोड़ा हैरान होते हुए इसका रहस्य जानना चाहा । संत फरीद ने हँसते हुए कहा- संत का सान्निध्य स्वयं मे साधना है । संत के सान्निध्यमें अदृश्य आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रवाह उमड़ता रहता है और अपने आप ही संत के सान्निध्य में, आध्यात्मिक व्यक्तित्व जन्म पा जाता है।

Friendship

1- "Friends are born, not made."
-Henry Adams
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2- "The lion and the calf shall lie down together, but the calf won't get much sleep."
-Woody Allen
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3- "No man is the whole of himself. His friends are the rest of him."
-Good Life Almanac
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4- "A friend to all is a friend to none."
-Aristotle
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5- "Friendship is a single soul dwelling in two bodies."
-Aristotle
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6- "Friendship is a thing most necessary to life, since without friends no one would choose to live, though possessed of all other advantages."
-Aristotle
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7- "The easiest kind of friendship for me is with ten thousand people. The hardest is with one."
-Joan Baez
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8- "Those that want friends to open themselves unto are cannibals of their own hearts."
-Francis Bacon
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9- "Friendship without self-interest is one of the rare and beautiful things in life."
-James Francis Byrnes
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10- "We make our friends; we make our enemies; but God makes our next-door neighbour."
-G.K. Chesterton
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11- "Friendship is the only thing in the world concerning the usefulness of which all mankind are agreed."
-Cicero
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12- "Friendship is not possible between two women one of whom is very well dressed."
-Laurie Colwin
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13- "Real friendships among men are so rare that when they occur they are famous."
-Clarence Day
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14- "Chance makes our parents, but choice makes our friends."
-Jacques Delille
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15- "It is the friends you can call up at 4 A.M. that matter."
-Marlene Dietrich
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16- "A friend may well be reckoned the masterpiece of nature."
-Ralph Waldo Emerson
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17- "Better to be a nettle in the side of your friend than his echo."
-Ralph Waldo Emerson
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18- "A friend is one before whome I can think aloud."
-Ralph Waldo Emerson
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19- "One loyal friend is worth ten thousand relatives."
-Euripides
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20- "Friendship is always a sweet responsibility, never an opportunity."
-Kahlil Gibran
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21- "Life is partly what we make it, and partly what it is made by the friends whom we choose."
-Tehyi Hsieh
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22- "Your friend is the man who knows all about you, and still likes you."
-Elbert Hubbard
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23- "When my friends are one-eyed, I look at their profile."
-Joseph Joubert
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24- "Friends are God's apology for relations."
-Hugh Kingsmille

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