शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

शिक्षक का कर्तव्य

महर्षि आश्वल्यायन को गौरव प्राप्त था कि उनका पढ़ाया हुआ हर छात्र राष्ट्र का प्रतिभाशाली और यशस्वी व्यक्ति है। प्रधानमन्त्री, सेनापति से लेकर कुरुपद का कृषि-पण्डित भी उन्ही का छात्र था। तभी एक दिन उन्होने सुना, उन्हीं का एक छात्र देवदत्त दस्यु हो गया है। उसके क्रूर कर्मो के कारण समस्त कुरुपद में त्राहि-त्राहि मच गई है। कोई भी सेना और सेनापति उसे वश में नहीं कर सका। महर्षि के लिए यह सन्देश वज्राघात के समान था। भीषण रात, आकाश में बादल घिरे हुए, महर्षि को रोका भी गया, पर वे नहीं रुके सीधे वहॉं पहुंचे जहाँ देवदत्त दस्यु कर्म किया करता था। अन्धेरे में एक छाया देखते ही देवदत्त ने ललकारा, रुक जाओ नही तो खड्ग प्रहार करता हूँ, किन्तु आगन्तुक रुका नहीं। देवदत्त का खड्ग छूटा और आगन्तुक के माथे में जा धँसा। रक्त के फव्वारे के साथ आकाश में बिजली चमकी, देवदत्त महर्षि के चरणों में गिर गया। गुरुदेव यह क्या हुआ तीव्र वेदना में देवदत्त चिल्लाया। महर्षि ने कहा- ``वत्स ! मेरे शिक्षण में कुछ कमी रह गयी थी, उसका दण्ड मुझे मिलना ही था।´´ देवदत्त गुरु का आशय समझ गया फिर उसने कभी भी डकेती नहीं डाली।

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