गुरुवार, 18 सितंबर 2008

स्वार्थपरता

एक बालक की मृत्यु हो गई । अभिभावक उसे नदी तट वाले श्मशान में ले पहुंचे । वर्षा हो रही थी। विचार चल रहा था कि इस स्थिति में संस्कार कैसे किया जाए।

उनकी पारस्परिक वार्ता में निकट उपस्थित प्राणियों ने हस्तक्षेप किया और बिना पूछे ही अपनी-अपनी सम्मति भी बता दी।

सियार ने कहा, ‘‘ भूमि में दबा देने का बहुत महात्म्य है। धरती माता की गोद में समर्पित करना श्रेष्ठ हैं। ’’कछुये ने कहा, ‘‘गंगा से बढ़कर और कोई तरण-तारणी नहीं। आप लोग शव को प्रवाहित क्यों नहीं कर देते ?’’ गिद्ध की सम्मति थी, ‘‘सूर्य और पवन के सम्मुख उसे खुला छोड़ देना उत्तम है। पानी और मिट्टी में अपने स्नेही की काया को क्यो सड़ाया-गलाया जाए ?’’

अभिभावको को समझते देर न लगी कि तीनों के कथन परामर्श जैसे दीखते हुए भी कितनी स्वार्थपरता से सने हुए है। उनने तीनों परामर्शदाताओं को धन्यवाद देकर विदा कर दिया। बादल खुलते ही चिता में अग्नि संस्कार किया।

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