शनिवार, 13 सितंबर 2008

कृपा तुम्हारी जो मिल गई

कृपा तुम्हारी जो मिल गई तो, विचार-विभ्रम नहीं रहेगा,
विकास-पथ पर न विघ्न होंगे, कहीं व्यतिक्रम नहीं रहेगा।

कहीं पे निर्जन अलंघ्य वन हो, अपार पर्वत, अगम्य घाटी,
अछोर सागर, अनंत जल हो, या शुष्क मरुथल, सुरम्य माटी,
कहीं न भय या विभ्रांति होगी, दिशा-दिशा में प्रकाश होगा,
नहीं निराशा, प्रमाद का फिर प्रभाव कोई भी पास होगा,

हमारा संकल्प और साहस अशक्त या कम नहीं रहेगा।

प्रभो! हमें दो वो कर्म-कौशल, जो मन कहीं पर न डगमगाए,
प्रत्येक कर्तव्य-कर्म केवल, तुम्हारी आभा से जगमगाए,
चरित्र-चिंतन की गंध से हो, पवित्र वातावरण हमारा,
सुपात्रता से ही पा सकें फिर, तुम्हारी बाहों का हम सहारा,

हमारा पुरुषार्थ फिर किसी पल, तनिक भी अक्षम नहीं रहेगा।

समर्थ गुरु! आपकी कृपा की,सुछत्रछाया में कान्ति होगी,
किसी हृदय में न वेदना या असीम पीड़ा-अशांति होगी,
न कंठ में कोई स्वर घुटेंगे, सभी का दु:ख-दर्द व्यक्त होगा,
अध्यात्म-बल की समृद्धि पाकर, प्रत्येक मानव सशक्त होगा,

शरीर, चिंतन, समय व धन का, कहीं असंयम नहीं रहेगा।

अनंत संघर्ष हम करेंगे, न भीत होंगे कुरीतियों से,
न संप्रदायो से, जातियों से, समाज की क्रूर नीतियों से,
नहीं टिकेंगी हमारे सम्मुख, गलित प्रथाएं या मान्यताएं,
नहीं भरेगी किसी भी पथ को, तिमिर से कोई अंधताएं,

स्वयं करेंगे सृजन नियोजित, विनाश का क्रम नहीं रहेगा।
कृपा तुम्हारी जो मिल गई तो, विचार-विभ्रम नहीं रहेगा।

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