शनिवार, 13 सितंबर 2008

दीपक और अँधेरा


दंभ में तम ने कहा
दीप को ललकार कर।
क्यों जला ही-जा रहा
वक्त-तू-बेकार कर।।
आकृति तेरी लघु है,
मैं असीमित-तम घनेरा।
व्योम से धरती के मध्य,
देख-ले। अस्तित्व मेरा।।
साथ मेरे है-हवा-
झंझावातों सी रात भी।
सह सकेगा तू भला-
झौंकों का आघात भी।।
गहन हो गहराता - मैं,
छा रहूँ बन के अंधेरा।
दीप तू तिल रोशनी का,
है नगण्य महत्त्व तेरा।।
दीप बोला तम तुझे,
इतना! अहंकार है।
आलोक तू नहीं जानता,
इससे तू अंधकार है।।
आलोक थोडा ही भला,
विश्वास की आवाज है।
पा-संभलता आदमी,
दीप! वो आगाज है।।
दीप मैं विश्वास का,
आलोक हूँ, मैं प्राण का।
तू अँधेरा-मैं-उजाला,
श्रद्धा-हृदय में-ज्ञान का।।
प्रेरणा-उत्कर्ष की मैं,
क्षमता बल संघर्ष का।
जितना जलाओ मैं जलूँ,
हूँ उजाला-हर्ष का ।।
रोकता पथ-तू-अँधेरे,
आपदा बन-तू अडे।
व्यक्ति-चाहे उजाला,
काम करले-वो-बडे।।
अपनत्व तुझ से तम बता,
है कहाँ-संसार में।
कौन चाहे अपना तुमको,
डूबे! अंधकार में।।
दीप की बातें - सुनी,
काँपा अँधेरा ढह गया।
दीपक जला - दीपक तले,
सिमटा अँधेरा खो गया।।

---रामगोपाल राही

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