रविवार, 14 सितंबर 2008

कर्मकांड

कपडे को रंगने से पूर्व धोना पडता हैं। बीज बोने से पूर्व जमीन जोतनी पडती हैं। भगवान का अनुग्रह अर्जित करने के लिये भी शुद्ध जीवन की आवश्यकता हैं। साधक ही सच्चे अर्थों में उपासक हो सकता हैं। जिससे जीवन साधना नहीं बन पडी उसका चिन्तन, चरित्र, आहार, विहार, मस्तिष्क अवांछनीयताओं से भरा रहेगा। फलत: मन लगेगा ही नहीं। लिप्साएं और तृष्णायें जिसके मन को हर घडी उद्विग्न किये रहती हैं, उससे न एकाग्रता सधेगी और न चित्त की तन्मयता आयेगी। कर्मकांड की चिन्ह पूजा भर से कुछ बात बनती नही। भजन का भावनाओं से सीधा सम्बन्ध हैं। जहाँ भावनाएं होंगी, वहां मनुष्य अपने गुण, कर्म , स्वभाव में सात्विकता का समावेश अवश्य करेगा।

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